किताबों के पन्नों को पलट के सोचता हूँ,
यूँजिन्दगी भी पलट जाये तो क्या बात है.
ख्वाबों में तो हरदम मिलता ही है वो,
आ हकीकत में लिपट जाये तो क्या बात है.
कुछ मतलब लिए ढ़ूँढ़ते हैं सब मुझको ,
आ बेमतलब निकट जाये तो क्या बात है.
यूँ ही बिखरा बिखरा सा वजूद है मेरा ,
बातों से तेरी सिमट जाये तो क्या बात है.
छीन कर तो सब ले जायेंगे दिल मेरा ,
तेरी अदा पे रपट जाये तो क्या बात है.
था मौज में झूमता वो शराबी चला,
वो हकीकत में घट जाये तो क्या बात है.
जो शरीफों की संगत में ना काटे कटे
रात संग सुरा के कट जाये तो क्या बात है.
हर कदम पर मैं खुशियाँ लुटाता चलूँ ,
यूँ ही जिन्दगी निपट जाये तो क्या बात है.
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6 comments:
किताबों के पन्नों को पलट के सोचता हूँ,
यूँजिन्दगी भी पलट जाये तो क्या बात है.
ख्वाबों में तो हरदम मिलता हीहै वो,
आहकीकत में लिपट जाये तो क्या बात है
कुछ मतलब लिए ढ़ूँढ़ते हैं सबमुझको
आ बेमतलब निकट जाये तो क्या बात है
बहुत लाजवाब रचना. शुभकामनाएं.
रामराम.
क्या बात है, संजू!! अब तो गज़ल वज़ल पर हाथ अजमाया जा रहा है. बहुत खूब!! लगे रहो!
बहुत बढिया लगा ..
mujhe padhkar bahut achchha laga
किताबों के पन्नों को पलट के सोचता हूँ,
यूँ जिन्दगी भी पलट जाये तो क्या बात है.
-आपने मनोभाव बहुत बढ़िया तरीके से उजागर किये हैं.
यूँ ही बिखरा बिखरा सा वजूद है मेरा ,
बातों से तेरी सिमट जाये तो क्या बात है.
हर कदम पर मैं खुशियाँ लुटाता चलूँ ,
यूँ ही जिन्दगी निपट जाये तो क्या बात है.
बहुत बढिया गजल लगी संजय जी!
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