जिन्दगी यूँ गुजर जायेगी आहिस्ता आहिस्ता,
घड़ी भी पाबंदी लगायेगी आहिस्ता आहिस्ता,
बेशक, तुम मुझे याद रखोगी कुछ दिन तलक,
फिर भूल भी मुझे जाओगी आहिस्ता आहिस्ता.
*~*~*~*~*
वो नाराज होता है कि कुछ लिखते नहीं ,
कहाँ से लायें वो लफ्ज जो मिलते नहीं ,
दर्द की गर जुबां होती तो बता देते उनसे,
वो जख्म कैसे दिखा दें जो दिखते नहीं.
-संजय तिवारी ’संजू’
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
दर्द की गर जुबां होती तो बता देते उनसे,
वो जख्म कैसे दिखा दें जो दिखते नहीं.
बहुत बेहतरीन रचना.
रामराम.
बढ़िया है, संजू!!
वो नाराज होता है कि कुछ लिखते नहीं ,
कहाँ से लायें वो लफ्ज जो मिलते नहीं ,
दर्द की गर जुबां होती तो बता देते उनसे,
वो जख्म कैसे दिखा दें जो दिखते नहीं
bahut khoob
दर्द की गर जुबां होती तो बता देते उनसे,
वो जख्म कैसे दिखा दें जो दिखते नहीं
वाह संजय जी! बहुत बढ़िया। दर्द की कोई भाषा नहीं होती।
Post a Comment